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हो चुकी है पीर परबत सी िपघलनी चािहए

apni baat
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मरता कया मांगे
िपजजा ३० िमिनट मैं और एमबुलंेस का भरोसा नहीं; इसकी सत्यता जानने के िलए हमने आई नेक्स्ट के प्लेटफ़ार्म से एक िस्टंग िकया |
मेरठ शहर मैं ७-८ सरकारी हस्पताल हैं िजनमें िकसी के पास १ िकसी के पास २ तो िकसी के पास ४ एमबुलंेस हैं;इसके अलावा िनजी हस्पतालों और सामािजक संस्थाओं को िमलाकर शहर मैं १४६ एमबुलंेस हैं जो इस शहर की ज़रूरतों के िलए काफी हैं|
तो सुिनए हमारे िस्टंग का िकस्सा ! सुबह ११ बजे हमने साकेत से डोिमनज़ जो साकेत से लग्भग ७-८ िकलोमीटर की दूरी पर है,फ़ोन लगाया, िपज्जा का आर्डर िदया और पूंछा “भैय्या िकतनी देर में लाओगे”| जवाब िमला जनाब २५ से तीस िमनट में |”ठीक है भाई इंतज़ार करते हैं”| इधर समानान्तर हमारे सहयोिगयों ने शहर के हस्पतालों में फ़ोन लगाने शुरू िकये |
सीन १: पी एल शर्मा हस्पताल फोन लगाया गया| ” जनाब डी-१५८ साकेत से मनोज बोल रहा हूँ ,मेरे चाचाजी को िदल का दौरा पड़ा है; आपसे िवनती है अपनी एमबुलंेस भेज दीिजये “|
” सॉरी, हमारे पास एक ही एमबुलंेस है और उसका एक्सल टूटा पड़ा है इसिलए हम आपकी मदद नहीं कर सकते | आप ऐसा कीिजये डफिरन में पता कीिजये |
सीन दो : डफिरन फोन लगाया गया | ” सर में डी १५८ साकेत से मनोज बोल रहा हु | मेरे चाचाजी को िदल का दौरा पड़ा है | आपसे िवनती है अपने हस्पताल की एमबुलंेस भेज दीिजये |
डफिरन से-” नहीं हमारे यहाँ यह सुिवधा नहीं है | यहाँ की एमबुलंेस सिर्फ हस्पताल से मरीजों को बाहर ले जाने के िलए है |
सर मेरे चाचाजी बहुत सीिरयस हैं | कृपा कीिजये |
सॉरी हमारे यहाँ यह सुिवधा नहीं है |
सीन ३: मेैिडकल कॉलेज इमरजेंसी | दो तीन िमनट तक हमने लगातार इमरजेंसी में फ़ोन िकये लेिकन घंटी बजती रही िकसी ने फ़ोन नहीं उठाया| तब हमने कॉलेज के चीफ़ मेडीकल सुपिरडेंट डॉ. गुप्ता को फ़ोन िकया तो पहले वो खीजे िक उनका नंबर हमें कहाँ से िमला िफर बोले यह मेरा काम नहीं,आप इमरजेंसी में फ़ोन कीिजये | जब उन्हें बताया गया की वहां कोई फ़ोन नहीं उठा रहा तो बोले टॄाई करते रिहये |
सीन ४: कैंट हस्पताल | जब उन्हें बताया गया तो जवाव िमला िक उनके हस्पताल की एमबुलंेस सुिवधा केवल कैंट एिरया के िनवािसयों के ही िलए है |
सीन ५: काल बेल बजती है | दरवाजा खोलने पर सामने डोिमनोज़ का िडलीवरी बॉय िदखाइ देता है |घडी देखी तो आर्डर के बाद केवल २५ िमनट बीते थे | हमने िपज्जा िलया,पेमेंट िकया और खाने बैठ गए लेिकन मन में िवचारों का झंझावात उमड़ रहा था |
हमारे देश को दासता से मुक्ित पाए ६० बरस गुज़र गए | इन साठ वर्षों में हमने बहुत कुछ पाया ; हािसल िकया |
हमने अन्तिरक्ष में छलांग लगाईं ; परमाणु ताकत बन गए |पृाैधाेिगकी के एिरया में आत्मिनर्भरता प्राप्त की ; िहन्दुस्तानी िदमाग का िवश्व में डंका बजने लगा; हम अपनी िमसाइलें बनाने लगे,अपने हवाई जहाज और हेलीकाप्टर बनाने लगे| िवश्व में हमारे उधाेगपित अग्िरम पंक्ित में खड़े होने लगे वगैरा वगैरा |
पर इन ६० वर्षों में हमने पयार खो िदया; ख़ुलूस खो िदया; अपनापन खो िदया; साँझा पिरवार की संस्कृित खो दी; पैसा कमाने के चक्कर में सेहत खो दी, सुकून खो िदया और मन की आजादी खो दी|हमारे पूर्वजों ने जो संस्कार हमें िवरासत में िदए थे वो खो िदए | पहले गाँव में, शहर में िकसी बुजुर्ग का स्वर्गवास होता था तो हुजूम उमड़ पड़ता था अब पड़ोस में कोई मर जाए तो हमें सुध नहीं होती | कुल िमला कर हमने अपने आदर्श, अपने नैितक मूल्यों को खो डाला | अब तो लगने लगा है की हमारे अंदर के इंसान को जगाने के िलए एक पैगम्बर , एक अवतार की सख्त जरूरत है |
दुष्यंत की यह ग़ज़ल आज के माहाैल पर िकतनी मौजू बैठती है आप अंदाजा लगाइए: क्या उन्हें इस बदहाली का बरसों पहले इल्हाम हो चूका था ?

हो चुकी है पीर परबत सी िपघलनी चािहए
इस िहमालय से कोई गंगा िनकलनी चािहए |
आज ये दीवार पर्दों की तरह िहलने लगी
शर्त लेिकन थी की बस बुिनयाद िहलनी चािहए |
हर सड़क पर हर गली में,हर नगर हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चािहए |
िसर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोिशश है िक ये सूरत बदलनी चािहए |
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेिकन आग जलनी चािहए |

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